क्या 1947 में समान नागरिक संहिता (UCC) लागू न करना एक ऐतिहासिक भूल थी?
भारत की आज़ादी के शुरुआती साल कई बड़े फैसलों और चुनौतियों से भरे हुए थे। इन्हीं में से एक सवाल आज भी चर्चा का विषय है — क्या 1947 में समान नागरिक संहिता लागू न करना एक ऐतिहासिक भूल थी, खासकर तब जब देश का बंटवारा ही धार्मिक आधार पर हुआ था और इस्लामी पहचान व कानूनों का ऐतिहासिक रवैया भी सामने था?
इतिहासिक पृष्ठभूमि: क्यों नहीं लागू हुई UCC?
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विभाजन की पीड़ा: देश ने अभी-अभी भयानक विभाजन झेला था। लाखों लोग विस्थापित हुए, हजारों मारे गए। माहौल बेहद तनावपूर्ण था। उस समय नेताओं की प्राथमिकता थी – देश को जोड़ना और घावों को भरना, न कि कानूनी टकराव पैदा करना।
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अल्पसंख्यकों को आश्वासन: बड़ी संख्या में मुस्लिम भारत में ही रुके। नेहरू और गांधी जैसे नेताओं ने उन्हें यह भरोसा दिलाया कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र होगा जो उनकी धार्मिक पहचान और निजी कानूनों का सम्मान करेगा।
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संविधान में स्थान: भारतीय संविधान (1950) में अनुच्छेद 44 के तहत UCC का उल्लेख है, लेकिन उसे नीति निर्देशक सिद्धांतों में रखा गया — यानी यह एक लक्ष्य है, कोई बाध्यकारी कानून नहीं।
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धीरे-धीरे सुधार की नीति: नेहरू और अंबेडकर ने पहले हिंदू कोड बिल लाकर सुधार की शुरुआत की। उनकी सोच थी कि एकदम से UCC लागू करने से प्रतिक्रिया और अस्थिरता हो सकती है।
लेकिन क्या यह मौका खो दिया गया?
कई लोगों का मानना है कि यह एक रणनीतिक चूक थी:
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जब देश का बंटवारा ही धर्म के आधार पर हुआ, तब यह जरूरी था कि जो लोग भारत में रहने का फैसला करें, वे एक समान नागरिक कानून को स्वीकार करें।
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अलग-अलग धार्मिक समुदायों के लिए अलग-अलग कानून चलाना समान नागरिकता की भावना को कमजोर करता है।
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उस समय तक इस्लामी नेतृत्व का व्यवहार भी स्पष्ट था — वे समान कानून या बहुसंख्यक संस्कृति के साथ मेल बैठाने को तैयार नहीं थे।
गांधी की विफलता: एक कड़वी सच्चाई
यहाँ एक और कड़वी लेकिन अहम सच्चाई है:
अगर महात्मा गांधी जैसे महान नेता, जिन्होंने मुस्लिम समुदाय के लिए हर स्तर पर समर्थन और बलिदान दिए, मुस्लिम लीग और कठोरपंथियों को अपने साथ नहीं ला सके.

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