"जब गांधी असफल हुए, तो ममता बनर्जी क्या चमत्कार करेंगी?".
भारत की राजनीति में कई बार ऐसा लगता है कि कुछ नेता इतिहास से सबक लेने की बजाय, उन्हीं गलतियों को दोहराने पर आमादा हैं। आज अगर हम कहें कि महात्मा गांधी जैसा नेता भी धार्मिक कट्टरता को रोक नहीं पाया, तो ममता बनर्जी जैसे नेताओं से क्या उम्मीद की जा सकती है, खासकर जब वे उन वर्गों के सामने झुकते हैं जिन्हें न संविधान चाहिए, न समानता, न शिक्षा—बस वर्चस्व चाहिए?
गांधी जी और कट्टरपंथ: एक ऐतिहासिक असफलता
महात्मा गांधी का सपना था एक ऐसा भारत जहाँ हर धर्म, हर व्यक्ति को समान अधिकार मिले। लेकिन कट्टरपंथ ने उनकी बात नहीं मानी। बंटवारे के समय लाखों लोगों की जान गई, और अंततः गांधी जी खुद भी उस कट्टर मानसिकता के शिकार हो गए जिसे वे जीतने निकले थे।
अगर गांधी जी जैसे व्यक्ति, जिनकी छवि एक 'महान संत' की थी, वे भी इस विचारधारा को बदल नहीं सके, तो क्या ममता बनर्जी जैसे नेता, जो राजनीतिक लाभ के लिए तुष्टिकरण करती हैं, वे कुछ कर पाएंगी?
कट्टरपंथियों की प्राथमिकताएं: लोकतंत्र नहीं, वर्चस्व
आम नागरिक विकास चाहता है—अच्छी शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य सेवाएं, कानून-व्यवस्था। लेकिन कट्टरपंथी सोच रखने वाले लोगों के लिए ये सब बातें गौण हैं। उनके लिए सबसे बड़ी प्राथमिकता है 'धार्मिक वर्चस्व'—हर चीज़ पर उनका नियंत्रण हो, चाहे वह राज्य हो, शिक्षा हो, प्रशासन हो या कानून।
वे न तो secularism को महत्व देते हैं, न liberty को, और न ही equality को। ऐसे में अगर कोई नेता बार-बार उन्हें 'खुश' करने की कोशिश करता है, तो वो नेता खुद को कमज़ोर करता है, और संविधान को भी।
ममता बनर्जी: Appeasement की सीमाएं
ममता बनर्जी ने बार-बार ऐसे फैसले लिए हैं जो बहुसंख्यक समुदाय को यह संकेत देते हैं कि राज्य में उनके साथ भेदभाव हो रहा है। चाहे दुर्गा पूजा विसर्जन पर रोक हो या इमामों को विशेष भत्ते—इन सब कदमों से कट्टरपंथी और मजबूत होते हैं।
वोटबैंक की राजनीति में तुष्टिकरण एक आसान रास्ता है, लेकिन यह शॉर्ट टर्म गेम है। लंबी दौड़ में इससे न राज्य को फायदा होता है, न समाज को।
सवाल ममता बनर्जी से नहीं, पूरे तंत्र से है
सवाल यह नहीं है कि ममता बनर्जी क्या करेंगी। सवाल यह है कि क्या हमारा लोकतंत्र इतना मजबूत है कि वह किसी भी प्रकार की धार्मिक वर्चस्ववादी मानसिकता के आगे झुके नहीं? क्या हम एक ऐसा भारत बनाना चाहते हैं जहाँ हर धर्म को समान अधिकार हो, या फिर एक ऐसा भारत जहाँ एक धर्म को बाकी सब पर थोपने की छूट मिले?
निष्कर्ष: अब या तो संविधान चलेगा, या कट्टरता
गांधी जी ने कोशिश की, लेकिन असफल रहे क्योंकि उनके सामने खड़ा विचार सिर्फ धार्मिक नहीं था, वह वर्चस्ववादी था। ममता बनर्जी या कोई भी नेता अगर उस सोच के सामने झुकते हैं, तो वे केवल आग को और हवा दे रहे हैं।
अब वक्त आ गया है कि भारत की राजनीति appeasement से ऊपर उठकर एक ऐसी नीति बनाए जो संविधान, न्याय और नागरिक मूल्यों को प्राथमिकता दे। वरना, गांधी जी की तरह हम फिर एक दिन पछताएंगे—लेकिन शायद तब बहुत देर हो चुकी होगी।

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